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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॑ गृह्णामि ॥१०॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। सवि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॑। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उस यज्ञ के फल का ग्रहण किस करके होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्नकर्त्ता सकल ऐश्वर्य के दाता तथा (देवस्य) संसार का प्रकाश करनेहारे और सब सुखदायक परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस संसार में (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले प्राण के (हस्ताभ्याम्) ग्रहण और त्याग से (अग्नये) अग्निविद्या के सिद्ध करने के लिये (जुष्टम्) विद्या पढ़नेवाले जिस कर्म की सेवा करते हैं, (त्वा) उसे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और जल की विद्या से (जुष्टम्) विद्वानों ने जिस कर्म को चाहा है, उस के फल को (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि विद्वानों का समागम वा अच्छे प्रकार अपने पुरुषार्थ से परमेश्वर की उत्पन्न की हुई प्रत्यक्ष सृष्टि अर्थात् संसार में सकल विद्या की सिद्धि के लिये सूर्य्य, चन्द्र, अग्नि और जल आदि पदार्थों के प्रकाश से सब के बल वीर्य्य की वृद्धि के अर्थ अनेक विद्याओं को पढ़ के उन का प्रचार करना चाहिये अर्थात् जैसे जगदीश्वर ने सब पदार्थों की उत्पत्ति और उन की धारणा से सब का उपकार किया है, वैसे ही हम लोगों को भी नित्य प्रयत्न करना चाहिये ॥१०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

तस्य यज्ञफलस्य ग्रहणं केन कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सर्वसुखदातुरीश्वरस्य (त्वा) तत्। (सवितुः) सविता वै देवानां प्रसविता। (शत꠶१।१।२।१७) तस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलैश्वर्य्यप्रदातुः (प्रसवे) सवितृप्रसूतेऽस्मिन् जगति (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरध्वर्य्वोर्वा सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके। (निरु꠶१२।१)। (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्याम्। वीर्यं वा एतद्राजन्यस्य यद्बाहू। (शत꠶५।३।३।१७)। (पूष्णः) पुष्टिकर्तुः प्राणस्य (हस्ताभ्याम्) ग्रहणविसर्जनाभ्याम् (अग्नये) अग्निविद्यासंपादनाय (जुष्टम्) विद्यां चिकीर्षुभिः सेवितं कर्म (गृह्णामि) स्वीकरोमि। (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निश्च सोमश्च ताभ्यामग्निजलविद्याभ्याम् (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं फलम् (गृह्णामि) पूर्ववत् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।२।१७-१९) व्याख्यातः ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - यत्सवितुर्देवस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्नये जुष्टमस्ति त्वा तत् कर्माहं गृह्णामि। एवं च यद्विद्वद्भिरग्नीषोमाभ्यां जुष्टं प्रीतं चारु फलमस्ति तदहं गृह्णामि ॥१०॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिर्मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गत्या सम्यक् पुरुषार्थेनेश्वरेणोत्पादितायामस्यां सृष्टौ सकलविद्यासिद्धये सूर्य्याचन्द्राग्निजलादिपदार्थानां सकाशात् सर्वेषां बलवीर्य्यवृद्धये च सर्वा विद्याः संसेव्य प्रचारणीयाः। यथा जगदीश्वरेण सकलपदार्थानामुत्पादनधारणाभ्यां सर्वोपकारः कृतोऽस्ति तथैवास्माभिरपि नित्यं प्रयतितव्यम् ॥१०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वराने उत्पन्न केलेल्या या जगात सर्व विद्यांची सिद्धी करण्यासाठी सूर्य, चंद्र, अग्नी व जल इत्यादी पदार्थांच्या साह्याने सर्वांचे बल वाढावे त्यासाठी विद्वानांनी विद्वानांच्या संगतीने पुरुषार्थ करून अनेक प्रकारच्या विद्या प्राप्त केल्या पाहिजेत व त्यांचा प्रसार व प्रचार केला पाहिजे. अर्थात ज्याप्रमाणे परमेश्वराने सर्व पदार्थांची निर्मिती करून त्यांना धारण केलेले आहे व उपकार केलेला आहे त्याप्रमाणे आपणही सदैव तशा प्रकारे प्रयत्न केला पाहिजे.